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सुभाष बाबू 7275 किलोमीटर कलकत्ता से पेशावर, मॉस्को और वहां से बर्लिन गाड़ी से गए थे

केन्द्रीय गृह मंत्री ने कहा कि सुभाष बाबू एक ओजस्वी विद्यार्थी थे, जो आईसीएस बना और उस ज़माने में आईसीएस बनने का मतलब था एशो-आराम सुनिश्चित हो जाना, लेकिन सुभाष बाबू ने एक अलग उद्देश्य से पढ़ाई की थी।

उन्होंने आईसीएस की परीक्षा अंग्रेज़ों की नौकरी करने के लिए पास नहीं की थी, बल्कि किस प्रकार अंग्रेज़ों को समूल उखाड़कर फेंक दिया जाए, इसके लिए की थी। उन्होंने आईसीएस परीक्षा टॉप करने के बाद भी अंग्रेज़ों की नौकरी नहीं स्वीकारी, राजनीति में आए, कलकत्ता के मेयर बने, दो बार कांग्रेस के अध्यक्ष बने, फिर कांग्रेस की कार्यनीति में मतभेद हुए,

कांग्रेस छोड़ी और फ़ॉरवर्ड ब्लॉक बनाया और आज़ादी के आंदोलन का एक नया अध्याय शुरू हुआ। द्वितीय विश्व युद्ध में जब अंग्रेज़ मुंह की खा रहे थे, तब सुभाष बाबू कलकत्ता में अपने घर में नज़रबंद थे और वहां से ग्रेट एस्केप नाम की एक यात्रा शुरू हुई। कलकत्ता से पेशावर, पेशावर से मॉस्को और वहां से बर्लिन, सुभाष बाबू 7275 किलोमीटर गाड़ी से गए।

उनके मन में कितनी धधक होगी, देशप्रेम की ज्वाला कितनी प्रदीप्त होगी, और स्वराज प्राप्त करने की कितनी तीव्र इच्छा होगी, तब जाकर अंग्रेज़ों के पूरे मार्ग को भेदकर बर्लिन तक पहुंचे। सुभाष बाबू ने जर्मनी से इंडोनेशिया, वहां से जापान और फिर सिंगापुर तक की 27,000 किलोमीटर की यात्रा पनडुब्बी से की।

देश को आज़ादी दिलाने के लिए आज़ाद हिंद फ़ौज का गठन किया, रेडियो स्टेशन बनाया और इसी द्वीप पर आज़ाद हिंद फ़ौज द्वारा स्थापित की हुई स्वतंत्र भारत की सरकार की घोषणा जापान में करके इसे मान्यता दी थी। जिस शासन का सूर्य दुनिया में कभी डूबता नहीं था,

उन अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ इतना बड़ा संघर्ष करके उन्होंने आज़ादी दिलाने का प्रयास किया। क्या हम सुभाष बाबू के उन प्रयासों को भुला सकते हैं, क्या सुभाष बाबू की देशभक्ति को हम दोयम स्तर का दर्जा दे सकते हैं, क्या आज़ादी के इतिहास में उनका गौरवपूर्ण स्थान नहीं होना चाहिए,

क्या उनके व्यक्तित्व से हज़ारों साल तक आने वाली पीढ़ियां प्रेरणा लें, इस प्रकार उनकी स्मृति को संजोकर गौरवपूर्ण तरीक़े से सुभाष बाबू को देश और दुनिया के सामने नहीं रखना चाहिए? अब समय आ गया है, देश में सुभाष बाबू को उनका उचित स्थान देने का और मोदी जी ने जो फ़ैसला किया है,

उनके लिए सिक्का निकालने का, उनके जन्मदिन को पराक्रम दिवस के रूप में मनाने का, उसी जगह पर तिरंगा फहराकर सुभाष बाबू की स्मृति को युगों-युगों तक संजोने का, इस द्वीप को सुभाष चंद्र बोस द्वीप नाम देकर उनके कार्यों को श्रद्धांजलि देने का और आने वाली कई पीढ़ियां सुभाष बाबू को नहीं भुला सकेंगी।


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